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अडानी की जनसुनवाई

जब जंगल बोलेगा, और इतिहास सुनेगा

किसी मूर्ति को जब काले परदे के सामने खड़ा किया जाता है,तो उसका केवल यह कारण नहीं होता कि सुंदरता निखरे —एक कारण यह भी होता है, कि साया दिखाई न दे।”हसदेव अरण्य आज उसी परदे के सामने खड़ा है।सरकार कहती है — यह विकास है।कंपनियाँ कहती हैं — यह प्रगति है।और जंगल…?वह चुप नहीं है — वह अपनी छाया में बोल रहा है।उसकी आवाज़11 नवम्बर को धरमजयगढ़ के पुरुंगा और तेंदुमुड़ी गाँवों में गूंजने वाली है। जनसुनवाई — या जनता की सुनवाई?वन विभाग के कैलेंडर में यह एक “जनसुनवाई” है,पर आदिवासियों के मन में यह “जन-संविधान” है।यह दिन सिर्फ़ परियोजना की मंजूरी का नहीं,लोकतंत्र की साख का दिन है।वे कागज़ जो इस सुनवाई में रखे जाएंगे,उनमें कोयले के आँकड़े होंगे —

पर लोगों के हाथों में जो मिट्टी है,वह आँकड़ों से नहीं, स्मृतियों से भरी है।विकास की भाषा और जंगल की चुप्पी“रोज़गार मिलेगा”, “राजस्व बढ़ेगा”, “राज्य का हित है” —ये वही वाक्य हैं जो हर जनसुनवाई में दोहराए जाते हैं।पर पेड़ कभी प्रेस नोट नहीं पढ़ते।वे बस गिरते हैं — और हर बार एक चिड़िया अपना घर खो देती है।विकास के इन भाषणों के बीचजंगल की खामोशी अब सवाल बन चुकी है —क्या विकास वही है जिसमें जड़ों को काटा जाएऔर उस कटाव को “नीति” कहा जाए?

जनता का पक्ष — जो बार-बार दबा दिया गयाहसदेव के गाँवों ने पहले भी कहा था “नहीं”।जनसुनवाई में दर्ज हुआ विरोध, रिपोर्ट में ग़ायब हो गया।ग्रामसभा के हस्ताक्षर गढ़े गए,और जंगल के दिल पर “मंजूरी” की मुहर लगी।

पर इस बार लोग जानते हैं —यह केवल कागज़ी प्रक्रिया नहीं,यह उनका भविष्य है, उनका अधिकार है।वे फिर आएँगे, उसी दृढ़ता के साथ,जैसे पेड़ हर पतझड़ के बाद फिर हरियाते हैं। यह सुनवाई सिर्फ़ सरकारी कार्यक्रम नहीं — प्रतिरोध की सांस है

हसदेव अब एक जगह नहीं, एक स्वर है।वह हर उस किसान के भीतर धड़क रहा है जो कहता है — “हमारे बिना हमारे भविष्य का निर्णय मत करो।”11 नवम्बर की सुबह, जब अधिकारी मंच पर होंगेऔर माइक्रोफोन से ‘कार्यवाही प्रारंभ’ की घोषणा होगी,

तब पेड़ों के बीच से उठती आवाज़ें कागज़ों पर नहीं,ज़मीन की धड़कनों पर दर्ज होंगी।यह सुनवाई अगर सच्ची रही,

तो जंगल बोल उठेगा —और अगर नहीं रही,तो इतिहास खुद बयान देगा कि किसने किसे नहीं सुना।“विकास की मूर्तियाँ आज भी बन रही हैं,पर जनता अब पर्दा हटाने लगी है।”14 नवम्बर सिर्फ़ तारीख़ नहीं,यह लोकतंत्र की परीक्षा है।यह वह क्षण है जब एक जंगलअपनी जड़ों से बोलने वाला है —धीरे, पर गहराई से।क्योंकि जब पेड़ बोलते हैं,तो उनके शब्दों में पत्तों की सरसराहट नहीं,धरती की सच्चाई होती है।

प्रकारण एक नजर मे

जंगल से ज़्यादा — यह एक जीवंत सभ्यता है

1,878 वर्ग किलोमीटर में फैला हसदेव अरण्य,

केवल पेड़ों का नाम नहीं — यह जनजीवन, जलस्रोत, और जैवविविधता की वह त्रयी है

जिसे छूना, प्रकृति की नसों में हस्तक्षेप करना है।

फिर भी वर्ष 2007, कोयला मंत्रालय का आदेश (क्रमांक 13016/14/2006-CA-I, दिनांक 31 अगस्त 2007)

ने इस हरियाली की कोख में Parsa East & Kente Basan (PEKB) ब्लॉक आवंटित किया

राजस्थान विद्युत उत्पादन निगम को।

और इसी के साथ शुरू हुआ वह अध्याय,

जहाँ “अडानी” नाम सरकारी फ़ाइलों के हर पन्ने पर अंकित होने लगा।

2008-09 में कंपनी बनी Mine Developer & Operator (MDO) —

यानि खुदाई जनता के पेट में, लाभ कॉर्पोरेट के खाते में।

मंज़ूरियों की जड़ें और झूठ की हरियाली

10 जनवरी 2009 की जनसुनवाई,

21 दिसंबर 2011 की पर्यावरण मंजूरी (J-11015/03/2008-IA.II(M)),

और 15 मार्च 2012 की वन स्वीकृति (F.No. 8-36/2018-FC)।

कागज़ों पर सब कुछ साफ-सुथरा था —

पर 2010 में Forest Advisory Committee (FAC) की रिपोर्ट ने स्पष्ट कहा था —

“यह क्षेत्र No-Go Zone है; खनन यहाँ पारिस्थितिक अपराध होगा।”

सरकारों ने रिपोर्ट को अनसुना किया,

जैसे जंगलों में चीख को हवा निगल जाती है।

और जब छत्तीसगढ़ अनुसूचित जनजाति आयोग (CSSTC) ने

6 नवम्बर 2024 की रिपोर्ट (पत्र क्रमांक CSSTC/Enq-34/2024) में

“ग्रामसभा की सहमति फर्जी पाई गई” कहा,

तो यह सिर्फ़ कागज़ नहीं, लोकतंत्र की अंतरात्मा पर दाग़ था।

सियासत की अदला-बदली, नीति की एकरूपता

हसदेव का कोयला काला है —

पर उससे ज़्यादा काली है वह राजनीतिक चुप्पी,

जो सत्ता बदलने पर भी नहीं बदलती।

भाजपा शासन (2003–2018) ने इसे “औद्योगिक भविष्य” बताया

(कैबिनेट निर्णय क्रमांक 112/IND/2013)।

कांग्रेस शासन (2018–2023) ने पहले विरोध के स्वर उठाए,

फिर 21 मार्च 2022 के आदेश (F-8-32/2022/10-2) से

Parsa ब्लॉक Stage-II को हरी झंडी दे दी।

विकास के इस रंगमंच पर

नेता बदलते रहे, पर पटकथा वही रही —

“जंगल काटो, जनता हटाओ, निवेश बढ़ाओ।”

संविधान की छाया में संवैधानिक उल्लंघन

यह भूमि संविधान की पाँचवीं अनुसूची में आती है,

जहाँ शासन PESA अधिनियम (1996) के तहत

ग्रामसभा की अनुमति से चलता है।

पर यहाँ अनुमति भी लिखी गई, और सहमति भी गढ़ी गई।

FAC की 26 जुलाई 2018 की बैठक (फाइल F.No. 8-36/2018-FC) ने

स्पष्ट कहा —

“खनन से दीर्घकालिक पर्यावरणीय क्षति अपरिवर्तनीय होगी।”

पर शासन ने इसे भी “विकास की collateral damage” मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया।

जब जनता ने धरती की आवाज़ बनना सीखा

मार्च 2022,

जब हसदेव में पेड़ गिरने लगे,

तो आदिवासी और किसान उठ खड़े हुए।

300 किमी की पदयात्रा, नारा — “जल-जंगल-जमीन हमारा है।”

लोकसभा प्रश्न क्रमांक 117 (21 जुलाई 2025) के अनुसार

3,68,217 पेड़ प्रभावित हुए —

पर यह सिर्फ़ संख्या नहीं,

यह वही हवा थी जो गाँवों में बच्चों के फेफड़ों तक जाती थी।

14 नवम्बर 2025 — एक तारीख़, जो इतिहास लिखेगी

वन विभाग की सूचना क्रमांक DFO/DJ/GEN-2025/1187 (दिनांक 14 अक्टूबर 2025)

के अनुसार धरमजयगढ़ के पुरुंगा–तेंदुमुड़ी क्षेत्र में जनसुनवाई प्रस्तावित है।

यह सुनवाई सिर्फ़ औपचारिकता नहीं,

यह जनता बनाम व्यवस्था की अदालत है —

जहाँ प्रश्न यह नहीं कि “खनन होगा या नहीं,”

बल्कि यह कि “जनतंत्र बचेगा या नहीं।”

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