
जब खबरें नीति से आगे निकल जाती हैं
रिपोर्ट – संजय शर्मा
फाइलें मौन हैं, कर्मचारी भयभीत हैं, और किसान प्रतीक्षा में हैं।धान खरीदी 2025-26 की चर्चा इस बार खेतों से ज़्यादा खबरों में है।एक ओर मीडिया रिपोर्ट“ 3100 रुपये प्रति क्विंटल”, “15 नवंबर से खरीदी आरंभ” और “21 क्विंटल प्रति एकड़ सीमा” जैसी घोषणाएँ कर रही हैं,तो दूसरी ओर शासन की वेबसाइट और राजपत्र पर नीति का एक भी आधिकारिक दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है।यह वह स्थिति है, जहाँ कागज़ गायब है, पर खबर ज़िंदा है —और जहाँ नीति से पहले उसके अंदाज़े ही खेतों तक पहुँच चुके हैं।


नीति या केवल घोषणा
खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग की वेबसाइट परअंतिम उपलब्ध नीति दस्तावेज़ “धान खरीदी नीति 2023-24” है।वर्तमान वर्ष 2025-26 की न तो कोई अधिसूचना जारी हुई है,न आदेश क्रमांक, और न ही गजेट प्रकाशन उपलब्ध है।इसके बावजूद कई समाचार माध्यमों में खरीदी की तारीख़, दर और सीमाऐसे प्रकाशित हुई हैं मानो शासन ने विधिवत नीति जारी कर दी हो।ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है —क्या नीति सचमुच बनी है, या केवल चर्चा में गढ़ी जा रही है?पत्रकारीय दृष्टि से यह स्थिति स्रोतहीन सूचना के प्रसारण का उदाहरण है,जहाँ “सूत्रों के हवाले” से आई खबरेंशासन के “आदेश पत्र” से ज़्यादा प्रभावशाली साबित हो रही हैं।
ज़मीनी तैयारी बनाम वास्तविकता
धान खरीदी किसी आदेश की तारीख़ से नहीं,बल्कि एक माह पूर्व शुरू होने वाली तैयारी से संचालित होती है।फड़ों की सफ़ाई, अस्थायी बिजली कनेक्शन, तोल-कांटा परीक्षण,हमालों की टीम, रजिस्टर और रस्सी की खरीद,सुरक्षा एवं परिवहन की व्यवस्था —यह सब वही कर्मचारी संभालते हैं जो वर्षों से समितियों में कार्यरत हैं।हर सीजन में ये कर्मचारी दिन-रात मेहनत करते हैं —कभी किसानों की पर्चियाँ बनाते हैं,कभी नमी की जाँच करते हैं,तो कभी देर रात तक ट्रक का वजन मिलाते हैं।अब जब यह खबर फैली कि “इस बार कलेक्टर के कर्मचारी खरीदी करेंगे”,तो समितियों में भय और असमंजस दोनों फैल गया।किसी को यह स्पष्ट नहीं कि “कलेक्टर के कर्मचारी” से अभिप्राय कौन हैं —राजस्व विभाग के? कृषि शाखा के? या जिला कार्यालय के लिपिक?
अनुभव बनाम प्रयोग
यदि बिना प्रशिक्षण और अनुभव के नए कर्मचारी इस प्रक्रिया में उतारे जाते हैं,तो यह केवल व्यवस्था परिवर्तन नहीं बल्कि प्रणालीगत जोखिम होगा।धान खरीदी में ज़रा-सी अव्यवस्था भीभुगतान, परिवहन और गुणवत्ता परीक्षण जैसे संवेदनशील चरणों को प्रभावित कर सकती है।जो नीति “जीरो सॉर्टेज” का दावा करती है,वह जीरो तैयारी के साथ कैसे सफल होगी यह प्रश्न शासन से ज़्यादा किसानों के मन में है।
राजनीतिक परत
इस पूरे प्रकरण में एक और परत जुड़ गई है कई सहकारी समितियों के चुनाव अब तक नहीं हुए हैं,और उनकी जगह अंतरिम अध्यक्ष नियुक्त किए गए हैं।गांवों में चर्चा है कि यदि खरीदी की कमान समितियों से हटाकर“प्रशासनिक टीमों” को दी जाती है,तो इससे कुछ चयनित समूहों को लाभ मिल सकता है।चाहे यह अफवाह हो या आंशिक सत्य,पर जब शासन की ओर से स्पष्ट आदेश नहीं जारी होता,तो अफवाहें ही दिशा तय करने लगती हैं।
प्रशासनिक असंतुलन
धान खरीदी केवल “सरकारी प्रक्रिया” नहीं यह राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।इसमें पारदर्शिता, समयबद्धता और अनुभवी प्रबंधन अनिवार्य हैं।कर्मचारियों को डराना या अनिश्चितता में रखनाइस व्यवस्था को कमजोर करता है।जब कर्मचारी यह नहीं जानते कि उनकी भूमिका अगले माह रहेगी या नहीं,तो उनकी कार्यकुशलता पर असर पड़ता है।और जब अधिकारी यह नहीं जानते कि उन्हें कौन सा कार्यभार मिलेगा,तो जवाबदेही धुंधली हो जाती है।
शासन की भूमिका
यदि शासन वास्तव में पारदर्शिता का पक्षधर है,तो पहला कदम होना चाहिए —नीति को सार्वजनिक करना, जिम्मेदारियाँ स्पष्ट करना,और कर्मचारियों को लिखित सुरक्षा देना।बिना अधिसूचना के परिवर्तन केवल भ्रम पैदा करता है।यह न किसानों के हित में है, न शासन की साख के लिए अनुकूल।निष्कर्षधान खरीदी नीति अब सिर्फ वार्षिक औपचारिकता नहीं रह गई है —यह शासन की विश्वसनीयता की परीक्षा बन चुकी है।आज ज़रूरत है एक स्पष्ट घोषणा की —कि नीति कहाँ है, आदेश कौन देगा, और खरीदी कौन करेगा।जब तक यह तीन प्रश्न अनुत्तरित रहेंगे,धान खरीदी का हर मौसम केवल यही वाक्य दोहराएगा —“खेत में फसल तैयार है,पर शासन की नीति अभी मसौदे में है।”



