अडानी की जनसुनवाई की दो आवाज़ें — एक संविधान की, दूसरी प्रशासन की

यह पूरा मामला धरमजयगढ़ क्षेत्र (जिला रायगढ़, छत्तीसगढ़) से जुड़ा है।यहाँ समूह की कोल प्रोजेक्ट से संबंधित जनसुनवाई को लेकर विवाद चल रहा है।यह इलाका संविधान की पाँचवीं अनुसूची में आता है, जहाँ “पेसा अधिनियम, 1996 (PESA Act)” लागू है पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में ग्रामसभा सर्वोच्च इकाई होती है — यानी किसी भी परियोजना के लिए ग्रामसभा की सहमति अनिवार्य होती है।
संविधानिक अधिकार बनाम प्रशासनिक कार्यवाही
ग्रामसभा का ‘नहीं’ — संविधानिक निर्णय पुरुंगा, तेंदुमुड़ी और आसपास के गाँवों की ग्रामसभाओं ने पेसा अधिनियम की धारा 4(d), 4(e), और 4(i) के तहत प्रस्ताव पारित किया।प्रस्ताव का आशय:“जब तक पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव का स्वतंत्र आकलन नहीं हो जाता, तब तक जनसुनवाई रद्द की जाए।”यह निर्णय राजनीतिक या भावनात्मक नहीं, बल्कि संविधानिक अधिकार का प्रयोग था।पेसा कहता है —“ग्रामसभा अपने भू-जल-जंगल-जमीन के उपयोग और प्रबंधन पर अंतिम निर्णय ले सकती है।”इसलिए यदि ग्रामसभा “नहीं” कह दे,तो प्रशासन या कंपनी उसे कानूनी रूप से पलट नहीं सकती।
प्रशासन की ‘बैठक में सहमति’
सवालों के घेरे में23 अक्टूबर को जिला प्रशासन ने प्रेस विज्ञप्ति जारी की कि“एसडीएम की अध्यक्षता में हुई बैठक में ग्रामीण जनसुनवाई के लिए सहमत हो गए हैं।”इस बैठक में सरपंच, उपसरपंच और कुछ प्रतिनिधि मौजूद थे,लेकिन यह ग्रामसभा नहीं थी।पेसा के अनुसार, ग्रामसभा एक सार्वजनिक मंच होती है, जहाँ हर मतदाता की राय दर्ज होती है।प्रशासनिक स्तर की “बैठक” केवल सलाहकार प्रकृति की होती है —वह ग्रामसभा के निर्णय को रद्द या पलट नहीं सकती।


मुख्य विवाद
ग्रामसभा का “निरस्तीकरण प्रस्ताव” अभी भी रिकॉर्ड में मौजूद है।जब तक यह प्रस्ताव औपचारिक रूप से वापस नहीं लिया जाता,तब तक जनसुनवाई की वैधता कानूनी रूप से संदिग्ध बनी रहती है।मुद्दे की गहराई:यह केवल खनन परियोजना या पर्यावरणीय सवाल नहीं है —यह संविधान की आत्मा और जनाधिकार की व्याख्या का मुद्दा है।मुख्य प्रश्न:- क्या प्रशासनिक “बैठक” संविधानिक ग्रामसभा के निर्णय को बदल सकती है?क्या “सहमति का निर्माण” असली “सहमति” कहलाएगी?सत्ता की व्याख्या बनाम जनता की भाषा:संविधान क्या कहता है प्रशासन क्या कर रहा है “लोगों की भागीदारी और सहमति से निर्णय होगा।लोगों की उपस्थिति और हस्ताक्षर से निर्णय मान लिया जाएगा।”यानी, प्रक्रिया निभाई जा रही है, पर उसकी आत्मा खो दी गई है।यह मामला बताता है कि “जनसुनवाई” और “सहमति” के बीच कितनी गहरी दूरी है।
निष्कर्ष / सार
धरमजयगढ़ की यह जनसुनवाई सिर्फ़ एक परियोजना का मामला नहीं,बल्कि पेसा अधिनियम की व्याख्या और ग्रामसभा की संप्रभुता का परीक्षण है।यह तय करेगा कि —क्या आदिवासी क्षेत्र की ग्रामसभा आज भी अपने निर्णय का अधिकार रखती है?या अब वह सिर्फ़ एक “औपचारिक मोहर” बनकर रह गई है?


